निर्मल वर्मा के हिंदी में आलोचना के स्तर पर विचार।
मेरा अनुभव इतना निराशा जनक रह है कि अब मेरी पुस्तको कि प्रशंसा होती है तो न तो ज्यादा ख़ुशी होती है और जब बुरायी होती है , तो कोई बहुत अफ़सोस भी नहीं होता। मैंने यह देखा कि हिंदी आलोचना में यह कोशिश कम रहती है कि पुस्तक का संसार क्या है और फिर उसकी शर्तो पर उसकी आलोचना या तारीफ की जाये। जब कोई आलोचक यह नहीं करता तो वह किताब में कुछ ऐसी चीजे चुन लेता है जो कि उसकी आलोचना का आधार बन जाती हैं। अपने में यह बहुत अधूरी प्रशंसा या आलोचना होती है। इससे एक आलोचक एक किताब का समग्र मूल्यांकन करने में बिल्कुल असमर्थ होता है। [...] और यह बात हमे अपनी संस्कृति में भी दिखाई देती है जहाँ हम नायपाल की किताब को लेकर इतने नाराज़ हो जाते हैं पर उसकी ठीक से आलोचना नहीं कर पाते। नीरद चौधरी का विरोध करने वाले कितने लोग मिल जायेगे पर नीरद चौधरी ने भारतीय संस्कृति के बारे में जो लिखा है उसके खिलाफ जो प्रतिक्रिया देखने में आती है, वह केवल एक पूर्वाग्रह , एक आक्रोश , एक नकली किस्म की देश भक्ती प्रधान भावुकता में चुक कर रह जाती है। [...]
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