{Of all lies, art is the least untrue - Flaubert}



Saturday, March 24, 2007

वेयर इज द फ्रेंड्स होम ?

टिप्पणी: जब हम हिंदी बोलते हैं तो कभी नहीं लगता कि कोई तर्जु़मा चल रहा है। पर जब लिखने की बात आती है तो साफ़ दिखता है कि हिंदी से पकड़ बिल्कुल छूट गयी है। अंग्रेजी के शब्दों का अनुवाद करना पड़ता है। अब ये भी समझ मैं नहीं आता कि innocence को भोलापन लिखे या अज्ञानता लिखे या फिर पवित्रता ही लिख डालें। या उर्दू का सहारा लेके मासूमियत या बेगुनाही लिखे। कुछ समय पहले मैं सोचता था कि भाषा का प्रयोग अगर बातचीत में होता रहे तो अच्छा है। बोलने की भाषा घर में प्रयोग होने वाले बर्तनों की तरह है जो रोज़ाना काम में आने से चमकते रहते हैं, ना की महंगे चाइना के टी-सेट की तरह जो विशेष मेहमानों के आने पर संदूक या अलमारी से निकाले जाते हैं। पर इस बात पर आज संशय होता है। बोलना भर काफी़ नहीं, लिखना पढ़ना बहुत ज़रूरी है। ये बात कोई नयी नहीं, पर आज सही से समझ में आई है। तो इस पोस्ट को अपने को हिंदी भाषी कहने वाले नौसिखिये मित्र का प्रयास भर समझे ।

हालांकि अब्बास किअरास्तामी की फिल्म वेयर इज द फ्रेंड्स होम ? (दोस्त का घर कहॉ है?) बच्चों की फिल्म लगती है पर इस फिल्म में कहीँ कहीँ लगभग वो अहसास होता है जो फ्रेंच फिल्म इन्नोसेंस को देख के हुआ था। वो आभास है कि बच्चों और बड़ो की दुनिया में एक अदृश्य दीवार है, जो बड़े लोग जाने अनजाने खड़ा करते रहते हैं, बच्चों को यथा कथित सामाजिक मूल्यों और मान्यताओ के सांचे में ढालने के लिए, वो एक के बाद एक नियम बनाते जाते हैं।

फिल्म के पहले ही दृश्य में यह बात साँफ हो जाती हैं। जब एक बच्चा क्लास में देरी से आता है तो अध्यापक एक नियम बना देता है, जब एक बच्चा कॉपी पे नहीं पन्ने पे गृह कार्य करके लाता है तो एक और नियम, जब एक बच्चा ( नेमत्ज़देह) अपनी कापी अपने भाई के पास भूल आता है तो फिर एक नियम बन जाता है। ऐसा नहीं कि यह सब नियम बेकार और फिजूल के हैं, पर ये सब देख के ये साँफ हो जाता है कि कौन शासक है, और कौन शाषित। बच्चों के भावहीन अशिक्षित चहरे स्पष्ट बोलते हैं कि चाहे उन्हें कुछ समझ में आये या ना आये पर उन्हें यह सब मानना हैं। नेमात्ज़देह को आगाह किया जाता है कि अगर ये गलती दौबारा हुई तो उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा।

कहानी में मोड़ तब आता है जब नेमत्ज़देह के साथ बैठे अहमद को घर जाके पता चलाता है कि वो भूल से नेमत्ज़देह की कापी अपने साथ घर ले आया है, और फिर शुरू होता है अहमद का अपने दोस्त को उसकी कापी वापस करने का सफर । अहमद अपनी माँ से दोस्त के घर जाने के लिए पूछता है पर जवाब ना में ही आता है। जब अहमद की माँ उसे बाहर कुछ काम के लिए भेजती हैं तो मौका पाकर वो अपने मित्र के घर जाने की सोचता है, परंतु अहमद की परेशानियाँ अभी ख़त्म नहीं होती क्योंकि उसे दोस्त के घर का पता मालूम नहीं है। अहमद कई बार घर का रास्ता पूछने कि कोशिश करता है पर हर जगह उसे धुत्कार दिया जाता है और घुमावदार रास्तों और असंवेदनशील लोगों से भरा, दुसरे गाँव का ये सफर , अहमद के लिए ही नहीं दर्शकों के लिए भी नए माने ले लेता है।

परंपरागत सोच वाले, अहमद के दादा के विचार सुनकर एक प्रकार की चिढ और ग़ुस्सा आता है पर नयी पीढ़ी के बढ़े लोग तो दो कदम आगे ही दिखते हैं जो बच्चों पे बिल्कुल ध्यान नहीं देते, उनकी बच्चों के सवालों के प्रति निरोत्सुक्ता, अपने दायित्व के प्रति उदासीनता का उदाहरण मात्र नहीं , पर उस दीवार का चिन्ह है जो बड़ो को बच्चो की बातें समझने के आड़े आती है। जैसे जैसे रात होती जाती है और दोस्त का घर नहीं मिलता, अहमद को डर लगने लगता है और उसका मन दुविधा और इस अनजान गाँव और लोगों के लिए संशय से भर जाता है। यह नन्हे अहमद की मासूमियत के पतन का आरम्भ सा दीखता है।

फिल्म का सबसे विस्मयकारी और धुंधला प्रसंग वह है जब अहमद दोस्त के घर पहुंच कर भी, उसकी कापी उसे वापिस नहीं करता। मैं अपने एक मित्र से,जिसने ये फिल्म देखी है, बात कर रह था कि अहमद ने ऐसा क्यों किया। हम कुछ नतीजो पर पहुंचे पर कुछ पक्का ना कह पाए। मेरा दोस्त बोला तुम तभी समझ सकते हो अगर तुम बच्चे हो। हाँ, शायद यह ही सही है।

किअरास्तामी की सिनेमा में वास्तविकता और कविता का सरल मिश्रण मिलता हैं। फिल्म के आख़री दृश्य में जब अहमद अपने दोस्त को उसकी कापी देता है, और दोस्त के कापी खोलने पर, वृद्ध व्यक्ति का दिया हुआ फूल सामने उभर के आ जाता है, तो एक अद्भूत अनुभूति होती है। कापी में दबे इस फूल के कई अभिप्राय हो सकते हैं, और शायद यह ही इस दृश्य का सौंदर्य है।

Thursday, March 15, 2007

नागार्जुन की तीन कवितायेँ...

जी हाँ , लिख रहा हूँ ...

जी हाँ, लिख रहा हूँ ...
बहुत कुछ ! बहोत बहोत !!
ढ़ेर ढ़ेर सा लिख रहा हूँ !
मगर , आप उसे पढ़ नहीं
पाओगे ... देख नहीं सकोगे
उसे आप !

दर असल बात यह है कि
इन दिनों अपनी लिखावट
आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ
नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की
तरह वो अगले कि क्षण
गुम हो जाती हैं
चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो बस
दो-चार सेकेंड तक ही
टिकती है ....
कभी-कभार ही अपनी इस
लिखावट को कागज़ पर
नोट कर पता हूँ
स्पन्दनशील संवेदन की
क्षण-भंगुर लड़ियाँ
सहेजकर उन्हें और तक
पहुंचाना !
बाप रे , कितना मुश्किल है !
आप तो 'फोर-फिगर' मासिक -
वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे,
मन-ही-मन तो हसोंगे ही,
की भला यह भी कोई
काम हुआ , की अनाप-
शनाप ख़यालों की
महीन लफ्फाजी ही
करता चले कोई -
यह भी कोई काम हुआ भला !


घिन तो नहीं आती है !

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है ?
जी तो नहीं कढता है ?

कुली मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाफ से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहां हो जाते हैं ढ़ेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढता है ?
घिन तो नहीं आती है ?

दूध सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगायेंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?
जी तो नहीं कढता है ?
घिन तो नहीं आती है ?

कर दो वमन !

प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!

स्वीकृति हो करुणामय,
अजीर्ण अन्न भोजी
अपंगो का नमन !

आते रहे यों ही यम की जम्हायियों के झोंके
होने न पाए हरा यह चमन
प्रभु तुम कर दो वमन !

मार दें भीतर का भाप
उमगती दूबों का आवागमन
बुझ जाए तुम्हारी आंतों की गैस से
हिंद की धरती का मन
प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!

Wednesday, March 14, 2007

हिंदी में ...

इस चिट्ठे से प्रेरित होकर मैंने सोचा कि क्यों ना अपने कोमा-मय ब्लोग में भी कुछ लिखा जाये। कुछ समय पहले हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार निर्मल वर्मा के निधन पर मैंने ये चिठ्ठा लिखा था । उसी का देवनागरी में रूपान्तर लिख रहा हूँ। थोड़े अभ्यास के बाद शायद ज्यादा लिख सकूं ।

अन्तिम अरण्य

..... कुछ लोग कहते हैं कि वो एक दिन के बाद दूसरे दिन में रहते हैं , उस समय उनका मतलब ये ही होता है कि वो एक ही दिन में रहते हैं। जब मैं छोटा था , तब मैंने अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ एक छोटे से कस्बाती स्टेशन में गुजारी थीं । वहां मेरे चाचा स्टेशन मास्टर थें। मैं देखा करता था कि रेल के डिब्बे जो पुराने हो जाते थे , उन्हें एक छोटी लाईन पर खड़ा कर दिया जाता था , रेल गाड़ियाँ आती और उन्हें छोड़ कर धड़धड़ाती हुई आगे बढ़ जाती । उन खाली डिब्बों में हम लुका-छुप्पी का खेल खेलते थे । कभी कभी हमे वहां अनोखी चीजें मिल जाती । किसी आदमी का मफलर , सीट के नीचे दुबका किसी लड़की का सेंडल , एक बार तो मुझे एक मुसाफ़िर कि फटी पुरानी नोटबुक भी मिली थी , जिस में पांच रूपये का चीकट नोट दबा था , पर सबसे विस्मयकारी स्मृति स्वम उस रेल के डिब्बे कि थी जो रेल कि पटरी पर खड़ा हुआ भी कहीँ नहीं जाता था ।