मंटो की कहानी 'खोल दो'
मंटो की विवादित कहानी 'खोल दो' आप यहाँ पढ़ सकते हें।
१ अनेक ,२ उमड़ता , ३ बूढ़ी , ४ गायब , ५ शुन्य , ६ लटका हुआ, ७ मस्तिष्क, इज़ार बंद = कमरबंद
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१ अनेक ,२ उमड़ता , ३ बूढ़ी , ४ गायब , ५ शुन्य , ६ लटका हुआ, ७ मस्तिष्क, इज़ार बंद = कमरबंद
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इस सप्ताहांत मैं सआदत हसन मंटो की कुछ कहानिया पढ़ रह था। शिकागो library में हिंदी की किताबो का अच्छा संग्रह है। वहीँ मैंने एक किताब देखी, जिसका शीर्षक था - मंटो की यथाकथित विवादित कहानियाँ। इस संकलन में मंटो की सात कहानिया हें, जिनमें से छः पर अश्लीलता का मुकदमा चला था। मंटो सभी में बरी हो गए थे। संकलन के शुरुआत में मंटो का लिखा एक लेख है - मंटो अपनी नज़र में - जिसमे सआदत हसन, मंटो का हमजाद (जिन्न) बन कर , मंटो की पोल खोलता है, बताता है की मंटो अफ़साने कैसे लिखता था, और वोह एक नंबर का फ्रोड क्यों है, पर असल में वो कहता है की चाहे मंटो बुरा आदमी हो, उसे अव्वल दर्ज़ा उर्दू ना आती हो, पर वो अपनी कहानियो में वो ही दिखाता है जो वोह अपने आस पास देखता है।
मैं मंटो की कहानियो पर कुछ लिखने की सोच रह था पर उनपर तर्क वितर्क लिखना थोडा मुश्किल सा लगा , कहीँ सही शब्द नहीं मिले तो कही सही तरह से उन्हें बताने का कोई तरीका नहीं सुझा। मंटो की कहानियो में अश्लीलता केवल शब्दो तक है, पर उनके पीछे जो भाव छुपा है वोह बहुत संवेदनशील और इमानदार हें। मंटो की कहानियो को खुरदुरा कहा जा सकता है, उन में जिस भाषा और बोली का इस्तेमाल है, जिस तरह मानसिक और शारीरिक स्थिती के वर्णन को मिला दिया गया है, उस से एक विशेष प्रकार का अनुभव होता है, जो इन्सान के जिस्म से जुडा है और उसकी भावनाओं से भी, उसी तरह जिस तरह एक अच्छी कहानी दार्शनिक होकर भी मिटटी से जुडी रहती है। मंटो विभाजन के दुःख से कोई सस्ती सहनाभुती नहीं बटोरता , पर बड़े ही कम लफ्जो में उस क्रूरता को दर्शा देता है। बिल्कुल उसी तरह वोह किस्सी वेश्या को उसके काम से नहीं देखता, पर उसके इंसानी इच्छाओ पर चिन्तन करता है। मेरी नज़र में इस संकलन की सबसे बेहतरीन कहानी 'हतक' है, जिसमे हमारी नायिका सुगंधि एक ग्राहक के नापसंद किये जाने पर जिस पीड़ा और अपमान के गुजरती है, वो मंटो ने बहुत सही चित्रित किया है। जब सुगंधि , सेठ के जाने के बाद, अँधेरी सुनसान सड़क पर आधीरात में खडी होती है, तो मंटो ने उसके मन में आने वाले एक एक विचार को किस्सी रहस्य की तरह खोला है, जो अंत में उसकी नियति की और इशारा करता है। मंटो की एक और कहानी 'काली सलवार' में मंटो ने मन में चलने वाले विचारो और आस पास के वातावरण को यु बुन दिया है जैसे वास्तव में वो एक ही हो, और उसपर ये भी जाहिर कर दिया है की यह सब आज ऐसा इसलिये लग रह है, क्योंकि सोचने वाले के मन की स्तिथी आज ऐसी है। मैं और कुछ ज्यादा नहीं लिख पा रहा हूँ , तो अंत में मंटो की कहानी 'हतक' से यह अंश लिख रह हूँ, जो साफ साफ मंटो की छाप लिए हुये है।
वो रूपये जो उसने अपने शारीरिक परिश्रम के बदले दरोगा से वसूल किये थे, उसकी चुस्त और थूक से भारी चोली के नीचे से ऊपर उभरे हुये थे, कभी कभी सांस के उतार चढ़ाव से चादी के यह सिक्के खनकने लगते थे, तो उनकी खनखनाहट उसके दिल की बेमेल धडकानो में घुलमिल जाती , ऐसा मालूम होता की इन सिक्को की चांदी पिघल कर उसके दिल के ख़ून में टपक रही है।
मंटो की बहुचर्चित कहानी टोबा टेक सिंह आप हिंदी में यहाँ पढ़ सकते हें। यहाँ मंटो की पांच लघु कहानिया पढ़ सकते हें।
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निर्मल वर्मा के हिंदी में आलोचना के स्तर पर विचार।
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एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर की उनकी रचनाओ में बहुत से पात्र बच्चे और बूढ़े होते हें, निर्मल वर्मा ने यह जवाब दिया।
मुझे हमेशा यह लगा है की हमारी, अर्थात जिन्हे हम व्यस्क कहते हैं उनकी, एक सर्व्सत्ता वादी प्रवृत्ति बचपन पर एक अवधारणा के रुप में और बच्चों पर विशेष रुप में छाई रहती है। इस पर बहुत कम लोगो ने ध्यान दिया। हम बचपन को बड़े होने की एक सीढ़ी मात्र मानते हें। मैं ऐसा नहीं समझता ,बच्चे ऐसा नहीं समझते। बच्चे ये नहीं सोचते की मैं जो समय बिता रहा हूँ वह इसलिये है की मैं बड़ा हो जाऊँ। बचपन का समय बड़े होने का मात्र मध्यम नहीं है, बड़ा होना बच्चों की लालसा अवश्य है, किन्तु बचपन का समय अपने में 'अब्सोल्यूट' है। छः बरस का बच्चा जो जीवन जीं रह है उसमे उसके अनुभव सम्पूर्ण हैं, अन्तिम हैं। वे अपनी सच्चाई में उसी तरह परिपक्व हैं जितने यथाकथित व्यस्क व्यक्ति के होते हैं। इसलिये पहले तो हमे इस गलत फ़हमी से छुटकारा पाना होगा की बचपन किसी खास जगह जाने के लिए एक सीढ़ी मात्र है। यह वही समाज शास्त्रीय दृष्टि है जिसके चलते हम सोचते हैं की एक परंपरागत समाज , विकसित समाज तक आने के लिए एक सीढ़ी है। मानो उसका अपना कोई सच ना हो, मानो यह नियति हो की अमुक ऊँचाई तक पहुचने के लिए मनुष्य ने यह विकास यात्रा की। इसे में समाज विज्ञान के स्तर पर भी और मनोविज्ञान के स्तर पर भी भ्रान्तिपूर्ण अवधारणा मानता हूँ।
बचपन काल का बोध वैसा नहीं होता वैसा की वह व्यस्क व्यक्ति को होता है। बचपन में आने वाला कल बच्चे को किसी तरह की कोई सांत्वना नहीं देता। थॉमस मान की एक कहानी है जहाँ एक बच्ची रोती है क्योकि वह बड़े आदमियों के साथ नाच नहीं सकती, उसके माता पिता उसे समझाते हैं लेकिन उसके आँसू नहीं रुकते क्योकि उस बच्ची को लगता है की में इस व्यक्ति के साथ कभी भी नाच नहीं सकूंगी । समय उसके दुःख को सोख नहीं सकता। उसका दुःख अपने में सम्पूर्ण है। बचपन की हर अनुभूति किसी आनेवाले क्षण की सांत्वना को प्राप्त नहीं करती। इसीलिये बच्चा जब रोता है तो पूरे दुःख से रोता है, कोई भी उसे दिलासा नहीं दे सकता।
अगर यह बात है तो मेरे लिए , एक लेखक के लिए, इसे समझना कितनी बड़ी जरूरत है, विशेषकर इसलिये की मैं एक ऐसे देश से हूँ जहाँ मैंने काल बोध की इस अवधारणा को ना केवल सहा है बल्कि जो अब भी मुझमे मौजूद है, जिसे व्यसकता का बोध अभी भी नष्ट नहीं कर पाया बशर्ते की मुझमे इतनी क्षमता और धैर्य हो की मैं उसे अपनी कहानियो में पुनर्जाग्रत करने की चेष्ठा करु। हम अपनी कहानियो में , उनके क्षेष्ठ्तम क्षणों में , उसे पुनर्जाग्रत करने में सफल हो पाते हैं जिसे हम अतीत कहते हैं लेकिन जो अभी मरा नहीं है बल्कि हमारे भीतर जीवित है। मैंने यहाँ सिर्फ बचपन की बात कही है, बुढ़ापे पर भी वह भिन्न रुप में लागू हो सकती है। मुझे व्यसकता की सर्व सत्ता वादी अभिव्यक्ति, चाहे वह बुढ़ापे पर हो या बचपन पर, क्रूर और आततायी जान पड़ती है।
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2:25 PM
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निर्मल वर्मा के लेख 'भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता' से कुछ अंश नीचे लिख रह हूँ।
आत्म उत्खनन अथवा आत्म अन्वेषण का सबसे सक्षम आयुध भाषा है। भाषा मनुष्य की देह का अदृश्य अंग है जो उसे आत्म दृष्टि देता है। भाषा और आत्म बोध का यह संबंध मनुष्य को समस्त जीव जंतु से अलग एक अद्वितीय क्षेणी में ला खड़ा कर देता है। अपने अधूरेपन को पहचान कर ही मनुष्य सम्पूणॅता का स्वप्न देखता है। अतः उसे पाने की प्राथमिक प्रतिज्ञा भी इसी आत्म बोध में निहित रहती है। किसी भी संस्कृति की पहचान महज उसके यथार्थ तक सीमित नहीं रहती, वह अपने स्वप्नों द्वारा भी विशेषता उजागर करती है, इसलिये उसकी बनावट में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है।
एक संस्कृति के क्या स्वप्न हैं, यह बहुत हद तक उसकी स्मृतियां निर्धारित करती हैं। शब्द में यदि स्वप्न का संकेत है तो स्मृति की छाया भी। इसलिये कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मृत भाषा नहीं होती। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मर मिट जाये , तो भी भाषा बची रहती है, जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं, तो वर्तमान में रहते हुए भी वे अवचेतन रुप में अपने अतीत से जुडे रहते हैं और अतीत अदृश्य रुप में उनके वर्तमान में प्रवाहित होता रहता है। इस अर्थ में भाषा का दोहरा चरित्र होता है, वह सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ साथ संस्कृति की वाहक भी होती है। किसी देश की संस्कृति एतिहासिक झंझावातों द्वारा क्षत विक्षत भले ही हो जाये, उसका सत्य और साताव्य उसकी भाषा में बचा रहता है।
[...]
हम जिसे संस्कृति का सत्य कहते हैं, वह और कुछ नहीं, शब्दो में अन्तर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है और जिसे हम 'यथार्थ' कहते हैं वह इन्ही अर्थों की खिड़की से देखा गया बाह्य जगत है। जिस अनुपात में हम किसी एतिहासिक दबाव या दमन के कारण अपनी भाषा से उन्मूलित हो जाते हैं, ठीक उसी अनुपात में खिड़की से बाहर देखा गया परिदृश्य भी धूमिल और धुंधला पड़ता जाता है। भाषा भीतर के सत्य और बाहर के यथार्थ के बीच सेतु का काम करती है। दिलचस्प बात यह है कि सत्य और यथार्थ दोनो असल में एक दूसरे से अलग नहीं हैं, केवल वैचारिक सुविधा के लिए ही उन्हें दो पृथक अवधाराणायो के रुप में देखते हैं। हम रहते एक ही शब्द जगत में हैं। जिस तरह बाहरी दुनिया भाषा कि बंदी है वैसे ही हम भाषा के बंदी हैं - खिड़की और खिड़की से बाहर देखा परिदृश्य एक दूसरे से अलग नहीं हैं। विटगेन्स्टाइन की उपमा का सहारा लें तो कहेंगे कि भाषा कि दीवारो से टकराकर जब माथे पर गोमड़ पड़ते हैं, तभी हमे अपने बंदी होने का बोध होता है।
भाषा, मिथक और स्मृति का यह अन्तः संबंध ही एक समूह के सदस्यों को एक सामूहिक अस्मिता में एक-सूत्रित करता है। जिस तरह यूरोप कि संस्कृति की कल्पना ग्रीक और लातिनी भाषा तथा उससे सम्बंधित मिथक कथाओ से अलग नहीं की जा सकती, उसी तरह भारतीय संस्कृति ने अपना रूपाकार भी संस्कृत में रची उन पौराणिक कथाओ और महाकाव्यों से प्राप्त किया था, जिनकी आदम स्मृति आज भी भारतीय मानस पर अंकित हैं। एक संस्कृति का एतिहासिक अतीत तो होता है जिसे हम मानकर चलते हैं, किन्तु उसका एक आन्तरिक अतीत भी होता है जो उसकी भाषा की अवधारणाओं, मिथकों और प्रत्ययों में अंतर्ध्वनित होती है। "हर भाषा उन लोगो के इर्द गिर्द , जो उसे बोलते हैं, एक जादुई घेरा खींच देती है, जिससे केवल एक दूसरे घेरे में जाकर ही बचा जा सकता है" - हाईडेगर ।
[...]
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11:51 AM
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8:07 AM
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जी हाँ , लिख रहा हूँ ...
जी हाँ, लिख रहा हूँ ...
बहुत कुछ ! बहोत बहोत !!
ढ़ेर ढ़ेर सा लिख रहा हूँ !
मगर , आप उसे पढ़ नहीं
पाओगे ... देख नहीं सकोगे
उसे आप !
दर असल बात यह है कि
इन दिनों अपनी लिखावट
आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ
नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की
तरह वो अगले कि क्षण
गुम हो जाती हैं
चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो बस
दो-चार सेकेंड तक ही
टिकती है ....
कभी-कभार ही अपनी इस
लिखावट को कागज़ पर
नोट कर पता हूँ
स्पन्दनशील संवेदन की
क्षण-भंगुर लड़ियाँ
सहेजकर उन्हें और तक
पहुंचाना !
बाप रे , कितना मुश्किल है !
आप तो 'फोर-फिगर' मासिक -
वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे,
मन-ही-मन तो हसोंगे ही,
की भला यह भी कोई
काम हुआ , की अनाप-
शनाप ख़यालों की
महीन लफ्फाजी ही
करता चले कोई -
यह भी कोई काम हुआ भला !
पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है ?
जी तो नहीं कढता है ?
कुली मजदूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाफ से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहां हो जाते हैं ढ़ेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढता है ?
घिन तो नहीं आती है ?
दूध सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगायेंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?
जी तो नहीं कढता है ?
घिन तो नहीं आती है ?
प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!
स्वीकृति हो करुणामय,
अजीर्ण अन्न भोजी
अपंगो का नमन !
आते रहे यों ही यम की जम्हायियों के झोंके
होने न पाए हरा यह चमन
प्रभु तुम कर दो वमन !
मार दें भीतर का भाप
उमगती दूबों का आवागमन
बुझ जाए तुम्हारी आंतों की गैस से
हिंद की धरती का मन
प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!
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11:27 AM
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इस चिट्ठे से प्रेरित होकर मैंने सोचा कि क्यों ना अपने कोमा-मय ब्लोग में भी कुछ लिखा जाये। कुछ समय पहले हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार निर्मल वर्मा के निधन पर मैंने ये चिठ्ठा लिखा था । उसी का देवनागरी में रूपान्तर लिख रहा हूँ। थोड़े अभ्यास के बाद शायद ज्यादा लिख सकूं ।
अन्तिम अरण्य
..... कुछ लोग कहते हैं कि वो एक दिन के बाद दूसरे दिन में रहते हैं , उस समय उनका मतलब ये ही होता है कि वो एक ही दिन में रहते हैं। जब मैं छोटा था , तब मैंने अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ एक छोटे से कस्बाती स्टेशन में गुजारी थीं । वहां मेरे चाचा स्टेशन मास्टर थें। मैं देखा करता था कि रेल के डिब्बे जो पुराने हो जाते थे , उन्हें एक छोटी लाईन पर खड़ा कर दिया जाता था , रेल गाड़ियाँ आती और उन्हें छोड़ कर धड़धड़ाती हुई आगे बढ़ जाती । उन खाली डिब्बों में हम लुका-छुप्पी का खेल खेलते थे । कभी कभी हमे वहां अनोखी चीजें मिल जाती । किसी आदमी का मफलर , सीट के नीचे दुबका किसी लड़की का सेंडल , एक बार तो मुझे एक मुसाफ़िर कि फटी पुरानी नोटबुक भी मिली थी , जिस में पांच रूपये का चीकट नोट दबा था , पर सबसे विस्मयकारी स्मृति स्वम उस रेल के डिब्बे कि थी जो रेल कि पटरी पर खड़ा हुआ भी कहीँ नहीं जाता था ।
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7:51 AM
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.....Jab kuch log kehte hain ki woh ek din ke baad doosre din mein rehte hain, us samay unka matlab ye hi hota hai, ki woh ek hi din mein rehte hain, jo chalta rehta hai. Jab main chota tha, tab ek baar maine apni garmi ki chuttiyaan ek chote se kasbaati station mein gujaari thi. Vahah mere chacha station master the. Main dekha karta tha ki rail ke dibbe jo puraane ho jaate the, unhe ek choti line par kada kar diya jata tha. Rail gadiyaan aati aur unhe chodd kar dhardarati hui aage badh jaati. Un khaali dibboon mein hum luka-chippi ka khel khelte the. Kabhi kabhi vahah hume anokhi cheeje mil jaati. Kissi aadmi ka muffler, seat ke neeche dubka kissi ladki ka sandal, ek baar to mujhe ek musafir ki phati puraani notebook bhi mili thi, jis mein paanch rupiye ka cheekat note daba tha, par sabse vismayekaari smrite syam us rail ke dibbe ki thi jo rail ki patri par khada hua bhi kahin nahin jata tha.
Noted Hindi Writer, Nirmal Verma, passed away on late tuesday night. I have read some of his short stories at my school-time from my Nana's library because I got to know of something called Nayi Kahani from my Hindi Teacher. I don't even remember how I felt then but today when I read about him, his writings and some passages from his short stories and novels, I understood why his works broke new grounds in Hindi Literature.
Here are some excepts from his famous works for those who are as ignorant as I was.
Antim Aranye
.....Us raat woh theek se nahin so saka. Darwaaze par thoda sa bhi khatka hota to woh chonk jata. Jeene ka darwaja kholkar woh bahar jhankta, to saari gali sunsaan dikhaayi deti. Sirf kahi door andhere mein chowkidaar ki lathi ki
thak-thak sunayi deti, woh laut aata, apne kamre main aane se pehle ek baar maa ke kamre mein jhaank leta. Gulmul si chadar oodh kar farsh par leti thi, sirhaane ke paas surahi aur peeche sandook jo unki kissi puraani peeli saari mein dhake the. Maa ne un sandookoon ko chippa kar ek ooche shinghasan mein badal diya tha. Shinghasan par unke thakurji viraajmaan hote the, jo nirantar us pariwaar ki oonc-neech dekhte aa rahe the. Kintu ab unki chutti door nahin thi. Ab thakurji kafi aashwasth dekhayi dete the, kyunki unhe maaloom tha ki yeh antim peedhi hai, iske aake kuch nahin dekhna padega. Rishi apne kamre mein laut aata aur bina batti jalaye apne bistar pe baith jaata. Lait jaane ki himmat nahin hoti, makaan ke khaali kounoon se aati har aawaaj ek andesha jaan padti thi. Use puraane note, reports, lekh aur patr itne khatarnaak nahin jaan padte the, jitne woh bedh jo har puraane makaan mein ekkathha ho jaate hain, hum deeri deeri unke saath rehna seekh lete hain, lekin har bhed ka ek suraag hota hai, jaise taale ki taabi, jisse koi bhi bahar ka aadmi khol sakta hai, khol bhi le to kya dekhenge, teen-chaar gujri huyi zindagiyoon ka ateet, jo ek makaan ki char-deewari ke beech daba tha.
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12:27 PM
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