'भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता' - निर्मल वर्मा
निर्मल वर्मा के लेख 'भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता' से कुछ अंश नीचे लिख रह हूँ।
आत्म उत्खनन अथवा आत्म अन्वेषण का सबसे सक्षम आयुध भाषा है। भाषा मनुष्य की देह का अदृश्य अंग है जो उसे आत्म दृष्टि देता है। भाषा और आत्म बोध का यह संबंध मनुष्य को समस्त जीव जंतु से अलग एक अद्वितीय क्षेणी में ला खड़ा कर देता है। अपने अधूरेपन को पहचान कर ही मनुष्य सम्पूणॅता का स्वप्न देखता है। अतः उसे पाने की प्राथमिक प्रतिज्ञा भी इसी आत्म बोध में निहित रहती है। किसी भी संस्कृति की पहचान महज उसके यथार्थ तक सीमित नहीं रहती, वह अपने स्वप्नों द्वारा भी विशेषता उजागर करती है, इसलिये उसकी बनावट में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है।
एक संस्कृति के क्या स्वप्न हैं, यह बहुत हद तक उसकी स्मृतियां निर्धारित करती हैं। शब्द में यदि स्वप्न का संकेत है तो स्मृति की छाया भी। इसलिये कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मृत भाषा नहीं होती। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मर मिट जाये , तो भी भाषा बची रहती है, जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं, तो वर्तमान में रहते हुए भी वे अवचेतन रुप में अपने अतीत से जुडे रहते हैं और अतीत अदृश्य रुप में उनके वर्तमान में प्रवाहित होता रहता है। इस अर्थ में भाषा का दोहरा चरित्र होता है, वह सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ साथ संस्कृति की वाहक भी होती है। किसी देश की संस्कृति एतिहासिक झंझावातों द्वारा क्षत विक्षत भले ही हो जाये, उसका सत्य और साताव्य उसकी भाषा में बचा रहता है।
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हम जिसे संस्कृति का सत्य कहते हैं, वह और कुछ नहीं, शब्दो में अन्तर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है और जिसे हम 'यथार्थ' कहते हैं वह इन्ही अर्थों की खिड़की से देखा गया बाह्य जगत है। जिस अनुपात में हम किसी एतिहासिक दबाव या दमन के कारण अपनी भाषा से उन्मूलित हो जाते हैं, ठीक उसी अनुपात में खिड़की से बाहर देखा गया परिदृश्य भी धूमिल और धुंधला पड़ता जाता है। भाषा भीतर के सत्य और बाहर के यथार्थ के बीच सेतु का काम करती है। दिलचस्प बात यह है कि सत्य और यथार्थ दोनो असल में एक दूसरे से अलग नहीं हैं, केवल वैचारिक सुविधा के लिए ही उन्हें दो पृथक अवधाराणायो के रुप में देखते हैं। हम रहते एक ही शब्द जगत में हैं। जिस तरह बाहरी दुनिया भाषा कि बंदी है वैसे ही हम भाषा के बंदी हैं - खिड़की और खिड़की से बाहर देखा परिदृश्य एक दूसरे से अलग नहीं हैं। विटगेन्स्टाइन की उपमा का सहारा लें तो कहेंगे कि भाषा कि दीवारो से टकराकर जब माथे पर गोमड़ पड़ते हैं, तभी हमे अपने बंदी होने का बोध होता है।
भाषा, मिथक और स्मृति का यह अन्तः संबंध ही एक समूह के सदस्यों को एक सामूहिक अस्मिता में एक-सूत्रित करता है। जिस तरह यूरोप कि संस्कृति की कल्पना ग्रीक और लातिनी भाषा तथा उससे सम्बंधित मिथक कथाओ से अलग नहीं की जा सकती, उसी तरह भारतीय संस्कृति ने अपना रूपाकार भी संस्कृत में रची उन पौराणिक कथाओ और महाकाव्यों से प्राप्त किया था, जिनकी आदम स्मृति आज भी भारतीय मानस पर अंकित हैं। एक संस्कृति का एतिहासिक अतीत तो होता है जिसे हम मानकर चलते हैं, किन्तु उसका एक आन्तरिक अतीत भी होता है जो उसकी भाषा की अवधारणाओं, मिथकों और प्रत्ययों में अंतर्ध्वनित होती है। "हर भाषा उन लोगो के इर्द गिर्द , जो उसे बोलते हैं, एक जादुई घेरा खींच देती है, जिससे केवल एक दूसरे घेरे में जाकर ही बचा जा सकता है" - हाईडेगर ।
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