{Of all lies, art is the least untrue - Flaubert}



Saturday, May 19, 2007

बचपन और बुढ़ापा

एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर की उनकी रचनाओ में बहुत से पात्र बच्चे और बूढ़े होते हें, निर्मल वर्मा ने यह जवाब दिया।

मुझे हमेशा यह लगा है की हमारी, अर्थात जिन्हे हम व्यस्क कहते हैं उनकी, एक सर्व्सत्ता वादी प्रवृत्ति बचपन पर एक अवधारणा के रुप में और बच्चों पर विशेष रुप में छाई रहती है। इस पर बहुत कम लोगो ने ध्यान दिया। हम बचपन को बड़े होने की एक सीढ़ी मात्र मानते हें। मैं ऐसा नहीं समझता ,बच्चे ऐसा नहीं समझते। बच्चे ये नहीं सोचते की मैं जो समय बिता रहा हूँ वह इसलिये है की मैं बड़ा हो जाऊँ। बचपन का समय बड़े होने का मात्र मध्यम नहीं है, बड़ा होना बच्चों की लालसा अवश्य है, किन्तु बचपन का समय अपने में 'अब्सोल्यूट' है। छः बरस का बच्चा जो जीवन जीं रह है उसमे उसके अनुभव सम्पूर्ण हैं, अन्तिम हैं। वे अपनी सच्चाई में उसी तरह परिपक्व हैं जितने यथाकथित व्यस्क व्यक्ति के होते हैं। इसलिये पहले तो हमे इस गलत फ़हमी से छुटकारा पाना होगा की बचपन किसी खास जगह जाने के लिए एक सीढ़ी मात्र है। यह वही समाज शास्त्रीय दृष्टि है जिसके चलते हम सोचते हैं की एक परंपरागत समाज , विकसित समाज तक आने के लिए एक सीढ़ी है। मानो उसका अपना कोई सच ना हो, मानो यह नियति हो की अमुक ऊँचाई तक पहुचने के लिए मनुष्य ने यह विकास यात्रा की। इसे में समाज विज्ञान के स्तर पर भी और मनोविज्ञान के स्तर पर भी भ्रान्तिपूर्ण अवधारणा मानता हूँ।

बचपन काल का बोध वैसा नहीं होता वैसा की वह व्यस्क व्यक्ति को होता है। बचपन में आने वाला कल बच्चे को किसी तरह की कोई सांत्वना नहीं देता। थॉमस मान की एक कहानी है जहाँ एक बच्ची रोती है क्योकि वह बड़े आदमियों के साथ नाच नहीं सकती, उसके माता पिता उसे समझाते हैं लेकिन उसके आँसू नहीं रुकते क्योकि उस बच्ची को लगता है की में इस व्यक्ति के साथ कभी भी नाच नहीं सकूंगी । समय उसके दुःख को सोख नहीं सकता। उसका दुःख अपने में सम्पूर्ण है। बचपन की हर अनुभूति किसी आनेवाले क्षण की सांत्वना को प्राप्त नहीं करती। इसीलिये बच्चा जब रोता है तो पूरे दुःख से रोता है, कोई भी उसे दिलासा नहीं दे सकता।

अगर यह बात है तो मेरे लिए , एक लेखक के लिए, इसे समझना कितनी बड़ी जरूरत है, विशेषकर इसलिये की मैं एक ऐसे देश से हूँ जहाँ मैंने काल बोध की इस अवधारणा को ना केवल सहा है बल्कि जो अब भी मुझमे मौजूद है, जिसे व्यसकता का बोध अभी भी नष्ट नहीं कर पाया बशर्ते की मुझमे इतनी क्षमता और धैर्य हो की मैं उसे अपनी कहानियो में पुनर्जाग्रत करने की चेष्ठा करु। हम अपनी कहानियो में , उनके क्षेष्ठ्तम क्षणों में , उसे पुनर्जाग्रत करने में सफल हो पाते हैं जिसे हम अतीत कहते हैं लेकिन जो अभी मरा नहीं है बल्कि हमारे भीतर जीवित है। मैंने यहाँ सिर्फ बचपन की बात कही है, बुढ़ापे पर भी वह भिन्न रुप में लागू हो सकती है। मुझे व्यसकता की सर्व सत्ता वादी अभिव्यक्ति, चाहे वह बुढ़ापे पर हो या बचपन पर, क्रूर और आततायी जान पड़ती है।

2 comments:

anurag said...

धन्यवाद जितेन्द्र भाई ! असल में मैं एक अलग हिंदी चिठ्टा शुरू करने की बहुत दिन से सोच रह हूँ, परंतु आलस के कारण नहीं कर पा रहा। इस ब्लोग पर तो मिश्रित पोस्ट रहती हें। मेरे ख़्याल से नए चिठ्ठे को ही नारद पे रजिस्टर करना बेहतर होगा।

Manish Kumar said...

"hum ek samay ek din mein jite hain"
jiwan ka ek lakshya nahi hota, insano ka hota hai, bhawna aur vichar jiwan mansik vridhi se jaroor prabhavit hote hain magar, us waqt us insaan ke liye wahi sach hai, vahi uski duniya hai.
"mendhak ki duniya uske kuyen tak hi seemit hoti hai, magar wahi uski sachai hai".