{Of all lies, art is the least untrue - Flaubert}



Wednesday, March 14, 2007

हिंदी में ...

इस चिट्ठे से प्रेरित होकर मैंने सोचा कि क्यों ना अपने कोमा-मय ब्लोग में भी कुछ लिखा जाये। कुछ समय पहले हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार निर्मल वर्मा के निधन पर मैंने ये चिठ्ठा लिखा था । उसी का देवनागरी में रूपान्तर लिख रहा हूँ। थोड़े अभ्यास के बाद शायद ज्यादा लिख सकूं ।

अन्तिम अरण्य

..... कुछ लोग कहते हैं कि वो एक दिन के बाद दूसरे दिन में रहते हैं , उस समय उनका मतलब ये ही होता है कि वो एक ही दिन में रहते हैं। जब मैं छोटा था , तब मैंने अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ एक छोटे से कस्बाती स्टेशन में गुजारी थीं । वहां मेरे चाचा स्टेशन मास्टर थें। मैं देखा करता था कि रेल के डिब्बे जो पुराने हो जाते थे , उन्हें एक छोटी लाईन पर खड़ा कर दिया जाता था , रेल गाड़ियाँ आती और उन्हें छोड़ कर धड़धड़ाती हुई आगे बढ़ जाती । उन खाली डिब्बों में हम लुका-छुप्पी का खेल खेलते थे । कभी कभी हमे वहां अनोखी चीजें मिल जाती । किसी आदमी का मफलर , सीट के नीचे दुबका किसी लड़की का सेंडल , एक बार तो मुझे एक मुसाफ़िर कि फटी पुरानी नोटबुक भी मिली थी , जिस में पांच रूपये का चीकट नोट दबा था , पर सबसे विस्मयकारी स्मृति स्वम उस रेल के डिब्बे कि थी जो रेल कि पटरी पर खड़ा हुआ भी कहीँ नहीं जाता था ।

3 comments:

Alok said...

कोमा-मय ब्लौग? बिल्कुल सही !

anurag said...

देखो , एक नया चिठ्टा लिखा :)

Manish Kumar said...

..... कुछ लोग कहते हैं कि वो एक दिन के बाद दूसरे दिन में रहते हैं ...

कितनी बड़ी बात है, कुछ साधारण शब्दों में ...
एक दिन एक जीवन समान हो जता है , और कुछ लोग कई जीवन जीते हैं |
कुछ लोग जैसे निर्मल वर्मा शब्दों में रहते हैं , और वो जीवित रहेंगे उन शब्दों में, उन रचनाओ में |
क्योंकि हम जीं रहे हैं उन रचानों को , जो उन्हें वापस उस दिन में ले जाती है जब उन्होने वो लेख लिखा था |

... कुछ लोग एक साथ कई दिनों में रहते हैं ...