वेयर इज द फ्रेंड्स होम ?
हालांकि अब्बास किअरास्तामी की फिल्म वेयर इज द फ्रेंड्स होम ? (दोस्त का घर कहॉ है?) बच्चों की फिल्म लगती है पर इस फिल्म में कहीँ कहीँ लगभग वो अहसास होता है जो फ्रेंच फिल्म इन्नोसेंस को देख के हुआ था। वो आभास है कि बच्चों और बड़ो की दुनिया में एक अदृश्य दीवार है, जो बड़े लोग जाने अनजाने खड़ा करते रहते हैं, बच्चों को यथा कथित सामाजिक मूल्यों और मान्यताओ के सांचे में ढालने के लिए, वो एक के बाद एक नियम बनाते जाते हैं।
फिल्म के पहले ही दृश्य में यह बात साँफ हो जाती हैं। जब एक बच्चा क्लास में देरी से आता है तो अध्यापक एक नियम बना देता है, जब एक बच्चा कॉपी पे नहीं पन्ने पे गृह कार्य करके लाता है तो एक और नियम, जब एक बच्चा ( नेमत्ज़देह) अपनी कापी अपने भाई के पास भूल आता है तो फिर एक नियम बन जाता है। ऐसा नहीं कि यह सब नियम बेकार और फिजूल के हैं, पर ये सब देख के ये साँफ हो जाता है कि कौन शासक है, और कौन शाषित। बच्चों के भावहीन अशिक्षित चहरे स्पष्ट बोलते हैं कि चाहे उन्हें कुछ समझ में आये या ना आये पर उन्हें यह सब मानना हैं। नेमात्ज़देह को आगाह किया जाता है कि अगर ये गलती दौबारा हुई तो उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा।
कहानी में मोड़ तब आता है जब नेमत्ज़देह के साथ बैठे अहमद को घर जाके पता चलाता है कि वो भूल से नेमत्ज़देह की कापी अपने साथ घर ले आया है, और फिर शुरू होता है अहमद का अपने दोस्त को उसकी कापी वापस करने का सफर । अहमद अपनी माँ से दोस्त के घर जाने के लिए पूछता है पर जवाब ना में ही आता है। जब अहमद की माँ उसे बाहर कुछ काम के लिए भेजती हैं तो मौका पाकर वो अपने मित्र के घर जाने की सोचता है, परंतु अहमद की परेशानियाँ अभी ख़त्म नहीं होती क्योंकि उसे दोस्त के घर का पता मालूम नहीं है। अहमद कई बार घर का रास्ता पूछने कि कोशिश करता है पर हर जगह उसे धुत्कार दिया जाता है और घुमावदार रास्तों और असंवेदनशील लोगों से भरा, दुसरे गाँव का ये सफर , अहमद के लिए ही नहीं दर्शकों के लिए भी नए माने ले लेता है।
परंपरागत सोच वाले, अहमद के दादा के विचार सुनकर एक प्रकार की चिढ और ग़ुस्सा आता है पर नयी पीढ़ी के बढ़े लोग तो दो कदम आगे ही दिखते हैं जो बच्चों पे बिल्कुल ध्यान नहीं देते, उनकी बच्चों के सवालों के प्रति निरोत्सुक्ता, अपने दायित्व के प्रति उदासीनता का उदाहरण मात्र नहीं , पर उस दीवार का चिन्ह है जो बड़ो को बच्चो की बातें समझने के आड़े आती है। जैसे जैसे रात होती जाती है और दोस्त का घर नहीं मिलता, अहमद को डर लगने लगता है और उसका मन दुविधा और इस अनजान गाँव और लोगों के लिए संशय से भर जाता है। यह नन्हे अहमद की मासूमियत के पतन का आरम्भ सा दीखता है।
फिल्म का सबसे विस्मयकारी और धुंधला प्रसंग वह है जब अहमद दोस्त के घर पहुंच कर भी, उसकी कापी उसे वापिस नहीं करता। मैं अपने एक मित्र से,जिसने ये फिल्म देखी है, बात कर रह था कि अहमद ने ऐसा क्यों किया। हम कुछ नतीजो पर पहुंचे पर कुछ पक्का ना कह पाए। मेरा दोस्त बोला तुम तभी समझ सकते हो अगर तुम बच्चे हो। हाँ, शायद यह ही सही है।
किअरास्तामी की सिनेमा में वास्तविकता और कविता का सरल मिश्रण मिलता हैं। फिल्म के आख़री दृश्य में जब अहमद अपने दोस्त को उसकी कापी देता है, और दोस्त के कापी खोलने पर, वृद्ध व्यक्ति का दिया हुआ फूल सामने उभर के आ जाता है, तो एक अद्भूत अनुभूति होती है। कापी में दबे इस फूल के कई अभिप्राय हो सकते हैं, और शायद यह ही इस दृश्य का सौंदर्य है।